Ghazal
ज़ख़म देती है तड़पने नहीं देती मुझको
ज़िंदगी चैन से जीने नहीं देती मुझको

कोई नेज़ा मेरे सीने में आलम करती है
और करवट भी बदलने नहीं देती मुझको

उस की यादें हैं मेरे गांव की मिट्टी जैसी
दूर रह कर भी बिछड़ने नहीं देती मुझको

सहरा, सहरा लिए फिरती र्है ज़रूरत मेरी
एक मर्कज़ पे ठहरने नहीं देती मुझको

बढ़के रख देती है कानों पे मेरे दस्त-ए-सुकूत
अपनी आवाज़ भी सुनने नहीं मुझ को

कितनी मग़रूर हुई जाती है ग़ुर्बत मेरी
ईद के रोज़ भी हँसने नहीं देती मुझको

तुझसे मुम्किन कहाँ दुनिया मरे ज़ख़मों का ईलाज
अपना अहवाल भी कहने नहीं देती मुझको

नींद का शोर अजब रूह मे दर आया
एक आहट है कि सोने नहीं मुझ को

कोई चाहत तिरे शाहिद. को सँभाले हुए है
टूट कर भी जो बिखरने नहीं देती मुझको

शाहिद कमाल